काबुल में तालिबान अब आगे क्या होगा ?

पासा पलट गया या पहले से ही पलटा पलटाया पड़ा था? अब बन्दुक की नोक से थोड़ी बहुत ओपचरिकता थी वो भी पूरी हो गयी।  यानि काबुल की सत्ता पर तालिबान बैठ गया।  अफगान राष्ट्रपति गनी अफगानिस्तान छोड़कर भाग गया।  पूरी दुनिया अब विश्लेषण करने में लगी पड़ी है कि आखिर इतना जल्द कैसे मात्र कुछ हजार तालिबानी, काबुल की लाखों की सेना को परास्त करके राष्ट्रपति गनी की कुर्सी पर अपने सेल्फी ले रहे है।   

आज विश्व भर के राजनितिक विश्लेषक दुनिया को बता रहे है कि तालिबानी लड़ाके काबुल में प्रवेश कर चुके है। दुनिया भर के सवाल जवाब हो रहे है।  कहानियाँ लिखी जा रही है, तालिबान का वर्जन 2 कैसा होगा? अफगानी शरणार्थी कहाँ जायेंगे? अब वहां महिलाओं की स्थिति कैसी होगी? हालाँकि कुछ को अमेरिका शरण दे रहा है कुछ को भारत।  लेकिन मुस्लिम देश क्यों शरण नहीं दे रहे है इस पर कोई विश्लेषण नहीं हो रहा है! और ना होगा।  आगे हो सकता है कि कुछ बच्चों की लाशें अख़बार के पन्नो पर फेंक दी जाये और सेड म्यूजिक के साथ रोते बिलकते एंकर आयेगी इससे गैर इस्लामिक जगत संवेदनशील होगा।  और शरणार्थी शरण पा जायेंगे।  

कहा जा रहा है अफगानिस्तान तो भारत का मित्र है।  लेकिन कैसे समझाए कि दो देशों की कोई मित्रता नहीं होती।  कोई रिश्तेदारी नहीं होती।  उनके सम्बन्ध आपसी व्यापार और फायदे पर टिके होते है।  अभी तक रूस भारत का मित्र था, क्योंकि सभी हथियार वहां से आते थे।  अब भारत जैसे ही अमेरिका और यूरोपीय देशों के निकट गया। तब रूस पाकिस्तान की मित्रता आगे बढ़ गयी।  ऐसे ही अब गनी रफूचक्कर हो गया दोस्ती भी रफूचक्कर हो गयी।  यहाँ से आगे अफगानिस्तान, पाकिस्तान का दोस्त होगा क्योंकि तालिबान पाकिस्तान से हथियार लेगा।

ऐसे तमाम विश्लेषण सामने आ रहे है लेकिन इन विश्लेषणों में असली सवाल दबकर रह गये कि तालिबान ने थोड़े ही दिन मे पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया! दुनिया के तमाम वामपंथी न्यूज़ पेपर, पोरटल, टीवी एंकर इसके लिए अमेरिका को दोष देने में लगे है।  ताकि पाकिस्तान चाइना और रसिया को क्लीनचिट दी जा सके।  क्या आज से 20 साल पहले अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला सिर्फ इसलिए किया था कि वहां शासन करे? शायद नहीं! क्योंकि अफगानिस्तान पर हमला सिर्फ इसलिए किया था कि तालिबान ने ओसामा बिन लादेन को उनको देने से मना कर दिया था।  अगर वो ओसामा को दे देते तो अमेरिका हमला ही नहीं करता।  

ओसामा को मारने के बाद भी अमेरिका ने अफगानिस्तान की सेना और धन से बहुत मदद की।  अफगान सेना को उच्च क्वालिटी की ट्रेनिंग दी, हथियार दिए पैसा दिया।  अब तालिबान से लड़ने की जिम्मेदारी अफ़गान सेना और जनता की थी।  जिसमे वे विफल रहे।  और शायद वे लड़ना भी नहीं चाहते!  कारण शायद खुद उनकी मानसिकता भी तालिबानी है।  अफगानी जनता ही नहीं अधिसंख्य मुस्लिम समाज की मानसिकता ही तालिबानी है।  

इसका जीता जागता उदहारण ये है कि अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों की अधिकृत संख्या तीन लाख 52 हजार है।  जुलाई, 2020 तक अफगानिस्तान के रक्षा मंत्रालय में इनकी संख्या एक लाख 85 हजार 478 थी।  इसके तहत सेना, वायु सेना और स्पेशल ऑपरेशन फोर्सेज (एसओएफ) आती हैं।  अफगानिस्तान के आंतरिक मंत्रालय में यह संख्या एक लाख तीन हजार 224 है।  इसके तहक विभिन्न पुलिस बल आते हैं।  इन्हें मिलाएं तो सुरक्षा बलों के कुल अधिकारियों की संख्या दो लाख 88 हजार 702 बैठती है।  साल 2019 में जारी किए गए अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) के आंकड़ों के अनुसार अफगानिस्तान की सेना में करीब एक लाख 80 हजार सैनिक हैं।  जिनकी अब काफी संख्या बढ़ चुकी है।  167 लड़ाकू विमान भी है जबकि तालिबान के पास ना कोई लड़ाकू विमान है और उनकी संख्या कुल 70 हजार के आसपास बताई जाती है।  अफगान आर्मी का रक्षा बजट करीब साढ़े पांच बिलियन डालर है और तालिबान का डेढ़ अरब फिर तालिबान जीत रहे क्यों यार ये तो बड़ा आश्चर्य है।

लेकिन क्या इसमें सच में आश्चर्य है शायद नहीं क्योंकि कहानी साफ़ है 1962 में चीन की सेना ने अरुणाचल प्रदेश के आधे से भी ज़्यादा हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था।  लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा चीनी सेना के प्रति विद्रोह हुआ और आम अरुणाचल वासियों ने ही चीन की सेना वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया था।  लेकिन अफगानिस्तान में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला।  तालिबान के बाद एक प्रान्त पर कब्ज़ा करते चले गये और अफगानी नागरिक उसे स्वीकार करते चले गये।  मसलन जब अफगान लोगों को ही तालिबान पसंद है तो हम क्या करें? कहीं ना कहीं वो भी खुद तालिबानी मानसिकता से पीड़ित है! मात्र कुछ हजार अमेरिकी सैनिक तालिबान को बीस साल तक दबाये बैठे रहे और आज उनके निकलते ही लाखों की अफगान फौज हार गयी हो तो सोचिये अफगान सैनिक किसके साथ थे?

दूसरा आखिर क्या कारण है की 56 मुस्लिम देशों मे से किसी ने भी तालिबान का विरोध नहीं किया। किसी सेक्यूलर, मुस्लिम उदारवादी ने तालिबान का विरोध नहीं किया।  रिहाना ग्रेटा का कोई ट्वीट नहीं आया।  अपने देश मे ही किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी ने तालिबान का विरोध किया क्या? अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मे कोई प्रोटेस्ट मार्च नहीं निकला? किसी मुल्ले मौलवी ने तालिबान के खिलाफ फतवा नहीं किया?  क्यों वे तालिबान की जीत पर खुश है और खुश इस लिए है की वो खुद मानसिकता से तालिबानी है और यही मूल समस्या है की आम मुस्लिम मानसिकता से आज भी तालिबानी है।  

उदहारण ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक को-ऑपरेशन यानी इस्लामी सहयोग संगठन ने एक बयान जारी कर कहा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान के संकट से चिंतित है।  लेकिन तालिबान पर एक शब्द नहीं बोला।  कभी तालिबान को अपना दुश्मन मानने वाला शिया देश ईरान आज तालिबान के साथ खड़ा है।  उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान दोनों मुस्लिम देश है।  लेकिन अफगानी शरणार्थियों अपने देश में घुसने नहीं दे रहे है।  तुर्कमेनिस्तान के पहले से ही तालिबान से संबंध मज़बूत है वो भी अफगान शरणार्थियों को लात मार रहा है।  पाकिस्तान और तालिबान का हमेशा से ही एक रिश्ता रहा है।  

तीसरा चिंता का विषय ये है कि सारी दुनिया के कम्युनिस्ट और तथाकथित प्रग्रेसिव लिब्रल की इस विषय मे षडयंत्रकारी चुप्पी।  गाजा पट्टी और रोहिंग्या मुस्लिम के लिए खून के आँसू रोने वाले ये लिब्रल आज कहाँ मर गए? कोई तालिबान की बात नहीं कर रहा, उल्टे दबे स्वर मे तालिबान की तारीफ ही हो रही है।  इसका साफ़ कारण ये है कि जो आज तालिबान ने किया ऐसा तो कम्युनिस्ट 100 सालों करते आये है।  वामपंथियों ने क्यूबा पर सेम इसी तकनीक से हमला किया था।  रूस में जार को हटाना हो या चीनी क्रांति ये ही तो वर्जन था जिसे आज तालिबान ने लागु किया।  कम्युनिस्ट तो स्वयं मे एक आतंकी फासिस्ट विचारधारा है मुस्लिम आतंकवाद के साथ है।  यही कम्युनिस्ट सारी दुनिया मे भेष बदल कर लिबरल के रूप मे घुसे हुए है।  इन कमुनिस्टों का इस्लामिक आतंकवाद से गठबंधन है।  दोनों के अंदर ही तालिबानी मानसिकता है क्योंकि जिस अफगान सेना को अमेरिका ने 20 सालों से तैयार किया था वह ताश के पत्तों की तरह बिखर गयी।  कई राज्यों ने तो बिना लड़े ही तालिबान के आगे समर्पण कर दिया।  

जिम्मेदारी ना भारत की है ना अमेरिका की।  जिम्मेदारी है अफगान जनता की, अफगान लोगों की।  अफगान के समाज की।  सवाल कीजिये की आखिर तालिबानी तालिबान 70 हजार आतंकी कहाँ से ले आया? उसे हथियार और पैसा कहाँ से मिल रहा है? क्यों आज 70 हजार तालिबानी विश्व की महाशक्तियों को आँख दिखा रहे है? क्योंकि उसे 56 देशों का समर्थन और इस्लामी तालिबानी मानसिकता का पूर्ण सम्रथन मिल रहा है।  

अगर आप तालिबान के काबुल पर कब्जे से दुखी द्रवित है तो ये दुःख का विषय नहीं है।  क्योंकि ये उनके समाज की मानसिकता का आइना है।  इस आईने को सामने खड़े होकर देखिये आप हिन्दू सिख बौद्ध संगठन बनाकर देखों कितने लोग जुड़ते है, कितने लोग आपके साथ खड़े होते है!  लेकिन एक बगदादी खड़ा होता है तो उसे लाखों लड़ाके मिल जाते है।  एक ओसामा खड़ा होता है उसे भी हजारों ओसामा मिल जाते है।  कोई बोकोहरम जब खड़ा होता है उसे भी इस्लाम के लिए लड़ने वाले मिल जाते है।  सिर्फ अपने देशों से नहीं बल्कि सीरिया और इराक में आई एस आई एस के साथ खड़े होने के लिए तालिबानी मानसिकता को आगे बढ़ाने के लिए मिल जाते है।  भारत जैसे देशों के मुस्लिम भी शामिल हो जाते है, यूरोप के मुसलमान अरब आ जाते है।  क्योंकि उनकी नजर में यही सही इस्लाम है।  जो आई एस आई एस और तालिबानियों को इस्लाम का सही चेहरा मानते है।  

अभी इस पठकथा का पहला चेप्टर है।  दूसरा चेप्टर तालिबान की हिंसा होगी।  तीसरे चेप्टर में उसकी निंदा होगी।  चौथे में अफगान शरणार्थी गैर मुस्लिम देशों की शरण लेंगे।  हर बार यही होता तो अब बस ये देखना है कब से हमें एक एक चेप्टर पढने को मिलेगा।  

Rajeev Choudhary

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