मंदिर के रिकॉर्ड ऑफ राइट्स (ROR) के मुताबिक, करीब 100 साल पहले तक पुरी में 25 देवदासी थीं। 1956 के उड़ीसा राजपत्र में नौ देवदासियों और 11 गायकों को मंदिर में सूचीबद्ध किया गया था।
ओडिशा में शनिवार (10 जुलाई 2021) को महरी पारसमणि के निधन के साथ ही पुरी के जगन्नाथ मंदिर में 800 साल से अधिक पुरानी देवदासी परंपरा का अंत हो गया। 92 वर्षीय देवदासी पारसमणि पुरी में भगवान जगन्नाथ की अंतिम जीवित सेविका थीं।
पारसमणि बीते आठ दशकों से अधिक समय से मंदिर की सेवा कर रही थीं। लगभग 80 साल तक सेवा करने के बाद वर्ष 2010 में उन्हें वृद्धावस्था के चलते भगवान जगन्नाथ के समक्ष गीतगोविंद का पाठ करने की सेवा बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। शनिवार को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। सोमवार (12 जुलाई 2021) को स्वर्गद्वार में उनका अंतिम संस्कार किया गया, जो कि बहुप्रतीक्षित रथ यात्रा का प्रतीक है। पारसमणि शहर के बलिसाही क्षेत्र में लोगों के सहयोग से किराए के मकान में रह रही थीं।
दरअसल, सदियों पुरानी इस परंपरा के अंत की शुरुआत राजशाही के हटने के साथ ही हो गई थी। ओडिशा सरकार ने 1955 में एक अधिनियम के जरिए पुरी के शाही परिवार से मंदिर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था। इसी के साथ ही पारसमणि को अंतिम जीवित सेवक बना दिया गया।
देवदासी या महरी प्रथा
देवदासी प्रथा के अनुसार, 12वीं सदी के जगन्नाथ पुरी मंदिर में महरी भगवान के लिए भजन गाती थीं या नृत्य करती थीं। इन देवदासियों का विवाह भगवान जगन्नाथ, जिन्हें नीलमाधव भी कहा जाता है, से हुआ था। इन देवदासियों ने भगवान को ‘दिव्य पति’ के रूप में स्वीकार किया और जीवन भर कुँवारी कन्या रहीं। इसलिए, महरी परंपरा को बरकरार रखने के लिए एक महरी को नाबालिग लड़की को गोद लेना पड़ता था और उसे सेवा में शामिल करने से पहले नृत्य, गायन और वाद्य यंत्र बजाने का प्रशिक्षण देना पड़ता था।
देवदासी प्रथा के बारे में बताते हुए एक लेख में कहा गया है, “भगवान के सोने जाने से पहले नृत्य व गायन प्रस्तुत किया जाता था। यह भगवान जगन्नाथ के प्रति विश्वास का सांस्कृतिक प्रतीक है, जो गायन और कला के विभिन्न रूपों का उच्चारण कर आत्मा को शुद्ध किया जाता है।” यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसे केवल महिलाओं को ही करना होता है।
प्रथा का अंत
रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि मंदिर के रिकॉर्ड ऑफ राइट्स (ROR) के मुताबिक, करीब 100 साल पहले तक पुरी में 25 देवदासी थीं। 1956 के उड़ीसा राजपत्र में नौ देवदासियों और 11 गायकों को मंदिर में सूचीबद्ध किया गया था।
पारसमणि जब सात साल की थीं, तभी से उन्होंने देवदासी के तौर पर प्रशिक्षण शुरू कर दिया था। कुंडामणि देवदासी ने उन्हें गोद ले लिया था। 1980 में जगन्नाथ पुरी मंदिर में केवल चार देवदासी ही थीं। इनमें हरप्रिया, कोकिलाप्रव, परसमणि और शशिमणि शामिल थीं। भगवान जगन्नाथ की ‘मानव पत्नी’ और एक अकेली महिला सेविका मानी जाने वाली शशिमणि की 2015 में मृत्यु हो गई थी।